उत्तराखंड के कुमाऊं में हरेला पर्व का धार्मिक व पौराणिक महत्व है। हरेला श्रावण मास के प्रथम दिन मनाया जाता है इस त्योहार को कर्क संक्रांति के रूप से भी जाना जाता है। इसे कर्क संक्रांति व श्रावण संक्रांति भी कहा जाता है। वैसे तो कुमाऊं में हरेला पर्व साल में तीन बार चैत्र, श्रावण व आश्विन माह के अंतिम दिन दशहरे पर मनाया जाता है, लेकिन श्रावण मास के हरेले पर्व का खास महत्व है।
श्रावण मास में पावन पर्व हरेला उत्तराखंड में धूमधाम से मनाया जाता है। मानव और प्रकृति के परस्पर प्रेम को दर्शाता यह पर्व हरियाली का प्रतीक है। सावन लगने से नौ दिन पहले बोई जाने वाली हरियाली को दसवें दिन काटा जाता है। इस दौरान हरेले के तिनकों को सिर में रखने की परंपरा आज भी कायम है। एक टोकरी में मिट्टी डालकर और उसे मंदिर के पास रख सात या नौ अनाज बोते हैं। इसमें गेहूं, जौ, मक्का, उड़द, गहत, सरसों व भट्ट को शामिल किया जाता है। सुबह-शाम पूजा के समय इन्हें पानी से सींचा जाता है और नौंवे दिन गुड़ाई की जाती है। जिसके बाद दसवें दिन हरेला पर्व हरेले के पूजन के बाद संक्राति के रूप में मनाया जाता है।
हरियाली एवं प्राकृतिक सुंदरता का प्रतीक है हरेला
ग्रीष्मकाल में पेड़-पौधों सूख चुके होते हैं। जिसके बाद सावन में रिमझिम बारिश के साथ ही बेजान पेड़-पौधे खिल उठते हैं। नए पौधे लगाए जाते हैं, चारों ओर हरियाली छा जाती है। यही कारण है कि प्राचीन समय से ही इस मौसम में हरेला मनाने की परंपरा रही है।प्राकृतिक सुंदरता इस समय अपने चरम पर होती है प्रकृति की इस छटा का अपना अलग ही रूप है। पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से आज इस त्योहार की महत्ता और बढ़ गई है। धीरे-धीरे इस त्योहार का महत्व बढ़ता जा रहा है।
हरेला की मान्यता: हरेला पर्व घर में सुख, समृद्धि व शान्ति के लिए बोया और काटा जाता है। हरेला अच्छी फसल का सूचक है, हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है कि इस साल फसलों को नुकसान ना हो। माना जाता है कि जिसका हरेला जितना बड़ा होगा उसे कृषि में उतना ही फायदा होगा। वैसे तो हरेला घर-घर में बोया जाता है, लेकिन कई गांव में हरेला पर्व को सामूहिक रुप से स्थानीय ग्राम देवता मंदिर में भी मनाया जाता हैं। गांव के लोग द्वारा मिलकर मंदिर में हरेला बोई जाती हैं और सभी लोगों द्वारा इस पर्व को हर्षोल्लास से मनाया जाता हैं।
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